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ओशो आश्रम/ प्रेम के मंदिर में नया बवाल: आचार्य रजनीश के बनाए पुणे आश्रम के कुछ हिस्से बेचने पर गहराया विवाद

“आचार्य रजनीश के बनाए पुणे के प्रसिद्ध आश्रम के कुछ हिस्से बेचने पर उठा नया बवाल”

रहस्य, विवाद और सुर्खियों से आचार्य ‘भगवान’ रजनीश उर्फ ओशो जीते जी तो शायद ही कभी दूर हो पाए, चर्चाएं उनके निधन के दशकों बाद भी रह-रहकर सिर उठा लेती हैं। नई चर्चा महाराष्ट्र के पुणे स्थित ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजॉर्ट को लेकर है, जिसे प्रेम का मंदिर ‘बाशो’ भी कहा जाता है। कई दशक पहले यह रजनीश आश्रम चमक-दमक और अपनी लकदक रहन-सहन तथा विचित्रताओं की वजह से निरंतर सुर्खियों में रहा करता था। लेकिन आज यह दूसरी वजहों से चर्चा में है। ज्यूरिख स्थित ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन (ओआइएफ) ने कोविड-19 की मार की वजह से आर्थिक तंगी का हवाला देकर इसके कुछ हिस्से बेचने का निर्णय लिया तो हंगामा खड़ा हो गया। ओशो के बहुत सारे अनुयायी और उनके समूह इससे बेहद आहत हैं। उनका आरोप है कि ओशो की विरासत को सहेजने के बजाय उसे बेचने और मिटाने का षड्यंत्र चल रहा है। लिहाजा, ओशो की विरासत और समाधि की रक्षा करनी होगी। उनकी मांग है कि बेचने की साजिश की जांच सीबीआइ को सौंपी जाए।

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     आचार्य रजनीश

जबलपुर में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर रजनीश ने सत्तर और अस्सी के दशक में अपने क्रांतिकारी विचारों और धर्म तथा प्रेम की एकदम अनोखी व्याख्या से काफी लोकप्रियता हासिल की थी। उनके अनुयायिओं की संख्या जब बढ़ने लगी तो उन्होंने अपने विचारों को मूर्त रूप देने के लिए 1974 में पुणे के पास कोरेगांव इलाके में कम्युन की स्थापना की, जिसे ओशो इंटरनॅशनल मेडिटेशन रिजॉर्ट या रजनीश आश्रम के नाम से जाना गया। उन्होंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण समय इसी आश्रम में बिताए। बाद में तत्कालीन जनता पार्टी सरकार के साथ मतभेद के बाद 1980 में वे अमेरिका चले गए और वहां ओरेगॉन की वास्को काउंटी में रजनीशपुरम की स्थापना की। लेकिन 1985 में उन्हें कई तरह के विवादों के कारण अमेरिका से निर्वासित कर दिया गया। फिर 21 अन्य देशों से ठुकराए जाने के बाद वे भारत लौटे और पुणे के अपने आश्रम में जीवन के अंतिम दिन बिताए। इसी आश्रम में 19 जनवरी 1990 को उन्होंने समाधि ली।

ओशो फाउंडेशन के अनुसार कोविड दौर में करोड़ों खर्च हुए, ट्रस्ट की जरूरतें पूरी करने के लिए प्लॉट बेचना जरूरी है

पुणे के कोरेगांव का आश्रम 28 एकड़ में फैला हुआ है। यहां प्रत्येक प्लॉट लगभग डेढ़ एकड़ का है, जिसमें स्वीमिंग पूल, मेडिटेशन सेंटर वगैरह बनाए गए हैं। इसमें से प्लॉट संख्या 15 और 16 को बेचने की पूरी तैयारी हो चुकी है। इसका रकबा लगभग 9,836 वर्गमीटर है। इसके लिए 107 करोड़ रुपये की बोली भी लग चुकी है। ओआइएफ ने महाराष्ट्र चैरिटी कमिश्नर को दिए आवेदन में कहा है कि कोरोना संकट के दौरान अप्रैल 2020 से लेकर सितंबर 2020 तक 3 करोड़ 65 लाख रुपये खर्च हुए। ट्रस्ट को पैसे की आवश्यकता है, इसलिए यह प्लॉट बेचना है।

लेकिन बिक्री का विरोध करने वालों का कहना है कि आश्रम को जो नुकसान हुआ है, उसके लिए 107 करोड़ रुपये की संपत्ति बेचना कहीं से तर्कसंगत नहीं है। यह भी आरोप लगाया गया है कि ओआइएफ के कुछ ट्रस्टियों ने ओशो के नाम पर प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों का गठन किया है, जिसे वे आश्रम की कीमत पर आगे ले जाना चाहते हैं।

ओशो फ्रेंड्स फाउंडेशन के स्वामी प्रेमगीत कहते हैं कि ओआइएफ ने चोरी-छुपे बाशो की जमीन बेचने की तैयारी की थी, मगर उनके अनुयायियों को इसकी भनक लग गई। उनका आरोप है कि ओआइएफ के ट्रस्टी एक विदेशी के हाथ की कठपुतली बनकर नाच रहे हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि यह ओशो की विरासत को समाप्त करने की साजिश है। उन्होंने सवाल उठाया कि जब कोरोना संकट के दौरान पूरे देश में लॉकडाऊन था, लोग अपने घर में बंद थे, तो पौने चार करोड़ रुपये कहां खर्च हुए। आश्रम के खर्च के बारे में कभी ओशो संन्यासियों को नहीं बताया गया। ओशो के संन्यासियों में इतनी क्षमता है कि अगर आश्रम को आवश्यकता है तो वे पैसे देने के लिए तैयार हैं।

हालांकि ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजॉर्ट की मीडिया प्रभारी मां अमृत साधना इसमें किसी भी तरह की साजिश के आरोप को बेबुनियाद बताती हैं। वे कहती हैं, “ज्यूरिख स्थित इंटरनेशनल फाउंडेशन ओशो कम्यून का मालिक नहीं है। यह नियो संन्यास फाउंडेशन और ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन के साथ पंजीकृत सार्वजनिक ट्रस्टों के स्वामित्व में है।” उनका कहना है कि यह हमारी अपनी जगह है और अपनी समझ के अनुसार इसे बेचने का फैसला किया गया है।

ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन के ट्रस्टी मुकेश सारदा के हस्ताक्षर वाले पत्र में कहा गया है, ‘‘कोविड-19 के कारण पिछले 15 माह से फाउंडेशन के परिसर को बंद कर दिया गया है, इसलिए आमदनी नहीं हो रही है। भूमि और भवनों के रखरखाव पर सालाना लगभग सात करोड़ रुपये खर्च होते हैं। अभी फाउंडेशन अपनी बचत का उपयोग आवश्यक खर्च के लिए कर रहा है, ऐसे में इसके ट्रस्टियों ने एक बड़ा फंड बनाने के लिए इन दो भूखंडों को बेचने का फैसला किया है, जिससे परिसर का रखरखाव हो सकेगा और लंबे समय के लिए एक मजबूत आर्थिक आधार मिलेगा।’’

लेकिन ओशोधारा के संन्यासी पुनेश्वरनाथ मिश्रा उर्फ स्वामी ब्रह्मानंद इस बिक्री को विदेशी साजिश बताते हैं और प्लॉट की बिक्री को गैरजरूरी मानते हैं। वे कहते हैं कि ओशो की बौद्धिक संपदा से बहुत बड़ी आय होती है। आठ साल पहले तक सिर्फ ओशो की बौद्धिक संपदा से 25 से 30 करोड़ की आय होती थी। उसी पैसे का इस्तेमाल हो तो ओआइएफ ओशो आश्रम की जमीन बेचने की बजाय और जमीन खरीद सकता है।

आरोप है कि कुछ ट्रस्टियों ने ओशो के नाम पर कंपनियां बना ली हैं, जिन्हें वे आश्रम की कीमत पर आगे ले जाना चाहते हैं

ओशो को मानने वाले अलग-अलग समूह अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं ताकि बाशो का वह हिस्सा न बिके। ओशो फ्रेंड्स फाउंडेशन के योगेश ठक्कर समेत कई अनुयायियों को महाराष्ट्र चैरिटी कमिश्नर ने मामले में हस्तक्षेप की अनुमति भी दी थी। कुछ दिनों पहले मुंबई और पुणे के ओशो के अनुयायियों ने राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी से भी मुलाकात कर ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन की गतिविधियों की जांच कराने का आग्रह किया था। ओशो आश्रम से लंबे समय तक जुड़े रहे स्वामी चैतन्य कीर्ति ने प्रधानमंत्री नरेंद मोदी के नाम खुला पत्र लिखकर इसे बचाने की अपील भी की है।

ओशो ब्लेसिंग मेडिटेशन कम्यून के प्रवक्ता डॉ. अजय गव्हाणे उर्फ स्वामी बोधि जागरण कहते हैं कि समाज को सक्रिय होकर ओशो की विरासत और समाधि को बचाना होगा। उन्होंने ओशो आश्रम नष्ट करने या उसे बेचने से रोकने के साथ-साथ सभी संबंधित मामलों की जांच सीबीआइ से करवाने की मांग की। उन्होंने कहा कि ओशो की विरासत को लेकर जागरूकता कार्यक्रम हो रहे हैं। उनकी विरासत भारत ही नहीं, बल्कि समस्त विश्व की है।

वैसे तो ओशो के अनुयायियों में मतभेद कोई नई बात नहीं है। वसीयत, बौद्धिक संपदा वगैरह को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला ओशो के निधन के साथ ही शुरू हुआ था, जो अब तक बरकरार है। लेकिन आश्रम से जुड़ी जमीनें बेचने के मुद्दे ने ओशो से संबंधित अन्य समूहों को ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन के खिलाफ आक्रोश दिखाने का एक बड़ा मौका दे दिया है। संभव है कि इस लड़ाई में आगे और रहस्य खुलें।

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