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एक्टिविस्ट सुधा भारद्वाज की बेटी बोलीं- ‘राज्य ने मेरी मां को मरने के लिए छोड़ दिया है’

एक्टिविस्ट सुधा भारद्वाज
पीटीआई फाइल फोटो

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आस्था सव्यसाची

“उन असीरों के नाम
जिन के सीनों में फ़र्दा के शब-ताब गौहर
जेल-ख़ानों की शोरीदा रातों की सरसर में
जल जल के अंजुम-नुमा हो गए हैं”

स्मिता गुप्ता ने क्रांतिकारी कवि फैज अहमद फैज की प्रसिद्ध कविता ‘इंतेसाब’ की कुछ पंक्तियों को फेसबुक पर अपनी प्रिय मित्र सुधा भारद्वाज को समर्पित किया है।

ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और वकील रही सुधा भारद्वाज को 2018 में एल्गार परिषद माओवादी लिंक मामले के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। मामला 31 दिसंबर, 2017 को पुणे जिले में आयोजित एल्गार परिषद सम्मेलन से संबंधित है। ऐसा आरोप है कि कॉन्क्लेव में कुछ कार्यकर्ताओं द्वारा दिए गए भाषणों के कारण अगले दिन पुणे शहर के बाहरी इलाके में कोरेगांव-भीमा युद्ध स्मारक के पास हिंसा हुई। जिसके बाद सुधा अपनी गिरफ्तारी हुई थी और वह तब से मुंबई की भायखला महिला जेल में बंद है।

जैसे ही जेल में सुधा की तबीयत बिगड़ती, तब उनके दोस्त और परिवार ने आउटलुक से उसकी कैद और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के बीच उनके काम के बारे में बात की।

स्मिता सुधा को उनके कॉलेज के दिनों से जानती थी। यह 1984 की बात है जब वह पहली बार आईआईटी कानपुर से एक युवा स्नातक सुधा से मिलीं थी, जिन्हें राजनीति और उत्पीड़न की गहरी समझ थी। स्मिता आउटलुक को बताती हैं कि वह हमेशा लोगों के शोषण के खिलाफ खड़ी रहीं। वह जन आंदोलनों की समर्थक रही थी और लोकतांत्रिक माध्यमों से लोगों की आवाज उठाने के लिए संगठित करने में विश्वास रखती थी।

स्मिता उस दिन को याद करती हैं जब सुधा ने अन्याय के खिलाफ लड़ने के अपने जुनून के लिए अपनी अमेरिकी नागरिकता छोड़ने का फैसला किया था। वह कहती है, “यही उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। वह इतनी जमीन से जुड़ी और विनम्र थी कि उसने कभी भी अपनी अच्छी पृष्ठभूमि, अपनी अमेरिकी नागरिकता, एक अच्छे संस्थान से अपनी शिक्षा को कुछ विशेषाधिकारों के रूप में नहीं देखा था। वह बस अमेरिकी दूतावास गई और अपनी नागरिकता छोड़ने के लिए आवेदन किया। उनके इस निर्णय से वहां मौजूद लोग सहम गए। उसे पुनर्विचार करने के लिए कहा गया। लेकिन सुधा के लिए यह बहुत स्वाभाविक था। उन्होंने शोषित और दलित जनता के लिए काम करने का फैसला किया था। उसने अपनी मासूम, दांतेदार मुस्कान दी और अपने फैसले पर कायम रही।”

इस बीच सुधा की 24 वर्षीय बेटी मायशा हमें बताती हैं कि कैसे उसकी मां ने छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की मदद करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। मायशा कहती है, “हम छत्तीसगढ़ के दल्ली राजहरा नाम के कस्बे में रहते थे। वह छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (सीएमएम) में शामिल हो गईं जहां वह क्षेत्र के कार्यकर्ताओं और आदिवासी लोगों के बच्चों को पढ़ाती थीं। चूंकि मम्मा हमेशा यूनियन के काम में व्यस्त रहती थीं, इसलिए मुझे यूनियन के एक फैक्ट्री कर्मचारी के परिवार ने पाला।”

मायशा यह भी कहती हैं कि उनकी मां ऐसे आदिवासी लोगों की कानूनी मदद करती रही हैं जो विस्थापित हो गए थे या जो उचित मजदूरी के लिए लड़ रहे थे और जिन्हें गलत तरीके से जेल में डाल दिया गया था।

वह याद करती हैं कि कैसे इलाके के कार्यकर्ताओं ने सुधा से कानून का पालन करने और अपने मामले लड़ने का अनुरोध किया था। कोर्ट रूम में जन-समर्थक आवाजों की कमी और कार्यकर्ताओं के अपने विश्वास को देखते हुए सुधा ने 40 साल की उम्र में वकील बनने का फैसला किया। इसके बाद उन्होंने बड़ी निगमों द्वारा जबरदस्ती भूमि हड़पने के खिलाफ श्रमिकों और आदिवासियों के लिए कई मुकदमे लड़े और जीते थे।

मायशा गर्व से कहती हैं, “मैंने अपनी मां की कई तस्वीरें देखी हैं जो मुझे एक कंधे के पास पकड़े हुए हैं और नारे लगाते हुए दूसरी मुट्ठी ऊंची की हुई है। मुझे याद है कि कैसे वह एक हाथ में तख्ती और दूसरे हाथ में मेरी उंगलियां पकड़े लंबी रैलियां करती थीं। जब वह भाषण देती थीं तो मैं मंच के पास खड़ा होकर उन्हें देखती थी। एक समय था जब मैं उन्हें गरीबों के हक के लिए भूख हड़ताल पर बैठे देखा करती थी। उन्होंने गरीबों के संघर्ष के लिए अपना दिल और आत्मा दोनों की ही समर्पित कर दी थी।”

58 साल की सुधा को अगस्त 2018 में गिरफ्तार किया गया था। तब से वह कई मौकों पर यह कहते हुए जमानत मांग चुकी है कि वह मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसी पुरानी बीमारियों से पीड़ित है।

मां की गिरफ्तारी को याद करने पर मायशा की आंखों में आंसू आ जाते हैं। मायशा फूट-फूट कर रोते हुए कहती हैं, “28 अगस्त, 2018 की सुबह उन्हें ले जाने से पहले, मम्मा और मेरे पास 10 मिनट का एकांत में वक्त दिया गया। मुझे रोना आर रहा था और मैं एक शब्द भी नहीं कह पा रही थी। अगले दो साल तक मैं अकेली औऱ दुनिया से अलग थी। मैं न रात में सो पाती थी न दिन में। मैं बस अपनी मम्मी की तस्वीरें देख कर रोती रहती थी। मैंने गंभीर आतंक हमलों और चिंता के मुद्दों को विकसित किया। मेरी जिंदगी अब भी मुझे सताती है। अभी भी, जब मैं आपसे इस बारे में बात कर रही हूं, तो मुझे वे झटके आ रहे हैं। मैं अपनी तरफ से उसकी कल्पना करती रहती हूं। मैं उनसे मिलने के लिए सोमवार और गुरुवार के लिए तरसती रहती हूं, मुझे उससे पांच मिनट बात करने को मिलता है। मेरे पास बस इतना ही है।”

इस बीच स्मिता का मानना है कि एल्गार परिषद मामले के संबंध में की गई सभी गिरफ्तारियां असहमति की आवाज को दबाने के लिए की गईं थी।

जमानत का इंतजार करते हुए एक्टिविस्ट स्टेन स्वामी (एल्गार परिषद माओवादी लिंक मामले में एक अन्य सह-आरोपी) की मौत ने मायशा को झकझोर कर रख दिया है। वह कहती है,” जिस दिन मुझे फादर स्टेन की मृत्यु के बारे में पता चला, मैं बहुत रोई। मैं अपनी मां के लिए बहुत डरी हुई हूं। जब हमारे वकील हमें बताते हैं कि उनकी तबीयत कैसे बिगड़ रही है, तो यह मुझे अंदर तक मार देता है। फादर स्टेन को बचाया जा सकता था, लेकिन राज्य ने उसे मरने के लिए छोड़ दिया। मुझे डर है कि वे मेरी मां के साथ भी ऐसा न करें।”

मायशा कहती हैं, “क्या हाशिए पर पड़े लोगों के लिए सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करना सरकार का काम नहीं है? क्या गरीबों और दलितों के लिए काम करना उनका काम नहीं है? मम्मा बस अपना काम कर रही थी। उसने अपने जीवन में सभी सुख-सुविधाओं को छोड़ दिया, बस वह करने के लिए जो सरकार इतने सालों में नहीं कर सकी। दुनिया को मेरी मां जैसे लोगों की जरूरत है। हमारी जिंदगी बर्बाद करने के लिए मैं उन्हें कभी माफ नहीं करूंगी।”

बता दें कि शुक्रवार को महाराष्ट्र सरकार ने बॉम्बे हाई कोर्ट को बताया कि पुणे की एक सत्र अदालत ने 2018 में एल्गर-परिषद माओवादी लिंक मामले में पुलिस के आरोपपत्र पर संज्ञान लेते हुए आरोपी व्यक्तियों के लिए कोई पूर्वाग्रह पैदा नहीं किया, और इसलिए सुधा भारद्वाज या उनके सह-आरोपी को डिफ़ॉल्ट जमानत का अधिकार नहीं दिया। हाई कोर्ट में याचिका पर 2 अगस्त तक सुनवाई जारी रहेगी।

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