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अब तो सारे देश में खेला, ममता ने नए नारे के साथ विपक्षी एकजुटता की पहल की तेज, लेकिन कई पेच सुलझना बाकी

इन दिनों दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में एक नया शब्द चलन में है – बनर्जी इफेक्ट। पेगासस मुद्दे पर संसद में विपक्षी दलों की संसद ठप करने की मोटे तौर पर एकजुट पहल कुछ-कुछ उसी इफेक्ट का मुजाहिरा माना जा रहा है, जो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने राज्य में भाजपा की चुनौती को पस्त करके दिखाई। लगता है, ममता के भाजपा को उसी तेवर में जवाब देने के हौसले ने तमाम विपक्षी दलों में नया जोश और जज्बा भर दिया है। इसका असर खासकर कांग्रेस में दिखा, जो अरसे बाद अपने कल-पुर्जे जोड़कर नए आक्रामक तेवर में दिख रही है और विपक्ष को समेट कर एक मंच पर लाने की कोशिश में लगी है। बेशक ममता के दिल्ली दौरे ने इसमें तेजी लाई और सुर्खियां बुलंद कीं।

ममता दो साल बाद दिल्ली आईं और पांच दिन रुकीं। जाते-जाते कह गईं कि अब वे हर दो महीने में आएंगी। विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की रिकॉर्ड जीत के बाद ममता 2024 के आम चुनाव को लेकर अपने इरादे जाहिर कर चुकी हैं। किसी क्षेत्रीय दल के लिए सबसे अहम सवाल पूरे देश में स्वीकार्यता है। इसलिए ममता अभी से विपक्ष को जोड़ने की कोशिश कर रही हैं। वे जानती हैं कि ऐसे किसी भी प्रयास के लिए कांग्रेस का साथ जरूरी होगा। शायद इसीलिए उन्होंने कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की, जिसमें राहुल भी मौजूद थे।

दिल्ली में ममता सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलीं। इससे पहले ममता और मोदी का आमना-सामना यास तूफान के बाद हुआ था, जब पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्य सचिव अलापन बंद्योपाध्याय को लेकर विवाद हुआ। उसी दिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ और आनंद शर्मा ममता से मिले। ममता के साथ पहले कभी कांग्रेस नेताओं की ऐसी शिष्टाचार मुलाकात नहीं हुई थी। वैसे, इन दोनों नेताओं के साथ ममता की निकटता पुरानी है। आनंद शर्मा जब यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे तब ममता राष्ट्रीय महासचिव थीं। शर्मा ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में तृणमूल के खिलाफ कांग्रेस के लेफ्ट और आइएसएफ के साथ हाथ मिलाने की भी आलोचना की थी। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने ममता को भोपाल आमंत्रित किया और कहा कि बंगाल में भाजपा के खिलाफ जीत के बाद देश के अन्य राज्यों की तरह मध्य प्रदेश के लोग भी उन्हें देखना और सुनना चाहते हैं। ममता राजद नेता लालू प्रसाद यादव से भी मिलीं। शरद पवार के साथ बैठक तो नहीं हुई लेकिन जैसा ममता ने बताया, उनसे फोन पर बात हुई।

तृणमूल नेताओं के अनुसार सोनिया समेत तमाम विपक्षी नेताओं के साथ मुलाकात का कारण यह जानना है कि ममता की स्वीकार्यता कितनी है। अभी उन्हें विपक्ष का नेता प्रोजेक्ट करने से विपक्षी एकता धरी रह सकती है, इसलिए पार्टी अभी खुल कर कुछ नहीं कह रही है। विपक्ष का चेहरा कौन होगा, यह पूछने पर ममता ने कहा, “सभी विपक्षी दल बैठकर तय करेंगे कि मोदी के खिलाफ लड़ाई की अगुआई कौन करेगा… भाजपा को हराने के लिए सबको एकजुट होना पड़ेगा। अकेले में कुछ नहीं कर सकूंगी… मैं लीडर नहीं, काडर हूं।” लेकिन यह कह कर उन्होंने अपने इरादे भी जता दिए कि ‘बिल्ली के गले में घंटी बांधने के लिए तैयार हूं।’

तृणमूल ममता के नेतृत्व की बात भले खुल कर न कह रही हो, लेकिन वह रणनीतिक रूप से आगे बढ़ रही है। राज्यसभा सांसद सुखेंदु शेखर राय के निवास पर 28 जुलाई को पार्टी सांसदों की बैठक हुई, जिसमें ममता को 2024 के आम चुनाव के लिए विपक्ष का नेता बनाने का प्रस्ताव पारित किया गया। दिल्ली आने से पहले ममता ने सांसद न होने के बावजूद खुद को तृणमूल संसदीय बोर्ड की चेयरमैन भी घोषित करवाया।

ममता का एक और फैसला इसी दिशा में कदम माना जा रहा है। पश्चिम बंगाल सरकार ने पेगासस जासूसी कांड की जांच के लिए आयोग गठित किया है जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी. लोकुर और कलकत्ता हाइकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ज्योतिर्मय भट्टाचार्य हैं। आयोग से छह महीने में रिपोर्ट देने को कहा गया है। इसे भाजपा के खिलाफ लड़ाई में ‘लीड’ लेने का प्रयास माना जा रहा है।

जांच समिति बनाने के लिए शिवसेना ने ममता की तारीफ की है। पार्टी नए विपक्षी मोर्चे की बात भी कह रही है। सांसद संजय राउत ने पार्टी के मुखपत्र सामना में लिखा है कि कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए अब कमजोर हो गया है। भाजपा के खिलाफ लड़ने वाली तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, टीआरएस, वाइएसआर कांग्रेस, बीजू जनता दल, अकाली दल यूपीए का हिस्सा नहीं हैं और न हो सकते हैं। इसलिए बड़े गठबंधन की जरूरत है, जिसमें कांग्रेस और यूपीए के दूसरे घटक दल भी शामिल होंगे। राउत का कहना है कि विपक्ष को सिर्फ संसद में नहीं, बल्कि सभी राज्यों में भाजपा के खिलाफ मिलकर लड़ना चाहिए। इस एकजुटता के लिए जो भी प्रयास कर सकता है उसे करना चाहिए। चाहे वह ठाकरे हों, सोनिया गांधी, राहुल, शरद पवार या ममता हों।

क्षेत्रीय दलों को एकजुट करने के साथ ममता खुद दूसरे राज्यों में पैर पसारने की कोशिश कर रही हैं। पार्टी के राजनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर की कंपनी आइपैक के 23 कर्मचारियों की टीम पिछले दिनों त्रिपुरा में तृणमूल की संभावनाओं का पता लगाने के लिए वहां गई थी। लेकिन अगरतला पुलिस ने उन्हें होटल में ही नजरबंद कर दिया। पुलिस का कहना था कि कोरोना हाल में बाहर से लोग आए हैं, बिना टेस्ट किए उन्हें बाहर नहीं निकलने दिया जा सकता। हालांकि कोरोना जांच निगेटिव आने के बाद भी आइपैक की टीम को नहीं निकलने दिया गया। बाद में स्थानीय अदालत ने बिना किसी शर्त सबको रिहा करने का आदेश दिया। इस दौरान तृणमूल ने सांसद अभिषेक बनर्जी समेत कई नेताओं को त्रिपुरा भेजा। अभिषेक की गाड़ी पर तथाकथित हमले की भी खबर आई। राज्य में अभी भाजपा की सरकार है और वहां 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं। अगले साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी तृणमूल की मौजूदगी दिख सकती है। बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान जब किसान नेता कोलकाता गए थे, तो ममता से भी वे मिले थे। सूत्रों के अनुसार ममता ने पार्टी के निशान पर किसान नेताओं को चुनाव लड़ने का ऑफर दिया।

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बढ़ी सरगर्मीः दिल्ली में सोनिया गांधी के साथ ममता

इस बीच, विपक्षी एकता की और भी कोशिशें हो रही हैं। राकांपा प्रमुख शरद पवार ने राजद नेता लालू यादव से मुलाकात की। वे पहले प्रशांत किशोर से भी मिल चुके हैं। लालू, मुलायम और अखिलेश यादव से मिले। इंडियन नेशनल लोकदल के अध्यक्ष और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने भी कहा है कि वे जल्दी ही विपक्ष के नेताओं से बात करेंगे ताकि राष्ट्रीय स्तर पर तीसरा मोर्चा गठित किया जा सके।

विपक्षी एकजुटता के प्रयास पहले भी अनेक बार हुए, लेकिन बात गंभीर होने से पहले ही एकजुटता बिखरने लगती है। कारण, सबकी अपनी आकांक्षाएं हैं। सोनिया से ममता की मुलाकात के ठीक बाद त्रिपुरा में कई कांग्रेस नेताओं को तृणमूल में शामिल कराया गया। ऐसे में एकता की बात कैसे हो सकती है? विपक्षी दल 2019 से ही मोदी सरकार के खिलाफ बयान दे रहे हैं। इनमें वामपंथी पार्टियां और तृणमूल भी शामिल हैं। लेकिन अभी तक इन दोनों के बीच भी चुनावी तालमेल नहीं दिखा है। कुछ नेताओं का यह भी कहना है कि विपक्षी एकता की रूपरेखा अगले साल विधानसभा चुनावों के बाद ही स्पष्ट होगी। लेकिन ममता चाहती हैं कि विपक्ष अभी से 2024 की तैयारी करे। उन्हें कांग्रेस का साथ भी मिल सकता है। पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और सांसद अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा है कि विपक्षी एकता के लिए दो साल तक गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए। उन्हें यह भी लगता है कि दूसरी पार्टियों के बीच संसद और बाहर तालमेल काफी बढ़ा है।

आम चुनाव में करीब तीन साल बाकी हैं। हाल ही विधानसभा चुनाव में भाजपा को शिकस्त देने वाली तृणमूल में जोश दिख रहा है। सवाल है कि क्या यह 2024 तक बना रहेगा। इसके अलावा, भाजपा को शिकस्त देने वाली ममता अकेली नेता नहीं हैं। केरल में माकपा नेता पिनराई विजयन ने भाजपा को एक भी सीट नहीं जीतने दी। तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन के नेतृत्व वाले गठबंधन ने भी भाजपा गठबंधन को हराया।

विपक्ष का चेहरा कौन होगा, यह साफ हुए बिना एकता संभव नहीं लगती। लेकिन इस मुद्दे पर कोई पत्ते खोलने को तैयार नहीं। सिंघवी ने भी कहा कि विपक्ष में नेतृत्व का मुद्दा 2024 के नतीजे आने तक ठंडे बस्ते में डाला जाना चाहिए। ममता से मिलने के बाद फिल्म कथाकार जावेद अख्तर ने कहा था, “बंगाल ने हमेशा क्रांतिकारी आंदोलनों का नेतृत्व किया है।” देखना है इस बार नेतृत्व की बागडोर किसे मिलती है।

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