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प्रथा या ज्यादती: बच्चे के जन्म लेते ही घर की दीवार में कर देते हैं छेद, गेट बनाकर मां के साथ अछूतों जैसे व्यवहार

प्रथा या ज्यादती: जन्‍म लेते बच्‍चे की आवाज सुनते ही घर की दीवार छेद बनता हैं दूसरा गेट, अछूत की तरह प्रसुता महिला को रख देते हैं अलग कमरे में

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नवीन कुमार मिश्र

कोरोना काल में संक्रमण से बचने के लिए लोग एक-दूसरे से फासला बनाकर रहते हैं। दो गज दूरी का नारा गूंज रहा है। मगर झारखण्‍ड में की आदिम जनजाति बिरहोर संक्रमण को लेकर जमाने से चौकस रहे हैं। बच्‍चे के जन्‍म लेने के समय तो पूछिये मत, अनूठी परंपरा रही है। टैबू है। प्रसूता जब बच्‍चे को जन्‍म देने वाली होती है घर से अलग बंद कमरे में कैद सी कर दी जाती है। उनकी मान्‍यता के अनुसार संक्रमण, जंगली जानवरों और बुरी आत्‍माओं से बचाने के लिए ऐसा किया जाता है। जब बच्‍चे का जन्‍म होता है, उसके रोने की आवाज आती है तब कमरे में छोटा सा छेद किया जाता है। कई दिनों तक इसके भीतर रहना होता है। खाना-पीना भी इसी छेद के माध्‍यम से दिया जाता है। इनका एहतियात उनकी धार्मिक आस्‍था, परंपरा से जुड़ी है।

संयुक्‍त बिहार के समय, ट्राइबल रिसर्च इंस्‍टीट्यूट की पुस्‍तक ”लैंड एण्‍ड पीपुल ऑफ ट्राइबल बिहार” के अनुसार बिरहोरों में जन्‍म से 21 दिनों तक नवजात और उसकी मां को अपवित्र माना जाता है। जन्‍म के पहले सात दिनों तक तो इनका पूरा टांडा (टोला) निषेध माना जाता है। इस अवधि में कोई पूजा नहीं होती, बलि नहीं देते न उत्‍सव मनाते। एक सप्‍ताह के बाद आरंभिक शुद्धिकरण के टांडा शुद्ध होता और 21 दिनों के बाद अंतिम शुद्धिकरण होती है। 21 वें दिन ही बच्‍चे का नामकरण भी होता है। मां और बच्‍चे को स्‍नान कराने के बाद बुरी आत्‍माओं के प्रकोप से बचाव के लिए करीब के जंगल में भूत पूजा की जाती है।

एंथ्रोपोलॉजिस्‍ट गंगानाथ झा के अनुसार बिरहोरों का ठिकाना पहले जंगल के गहरे भीतर होता था। वर्नरेबुल कंडीशन में ये रहते थे। झारखण्‍ड की आठ आदिम जनजातियों में बिरहोर और सबर सबसे निरीह हैं। जंगलों पर ही इनकी निर्भरता है। शिकार करना, संग्रह करना रस्‍सी बनाना। जंगलों में इनका टांडा (टोला) रहता, फूस-पत्‍तों से बना कुंबा (घर)। अलग कुंबा में प्रसूती को रख दिया जाता था। शुद्धिकरण और अदृश्‍य शक्तियों से बचाने के लिए। बच्‍चे का जन्‍म होने के बाद मुख्‍य द्वार नहीं बल्कि दूसरे हिस्‍से की दीवार में छेद बनाकर उसी रास्‍ते मां-बच्‍चे को निकाला जाता था। अब पहले जैसी बात नहीं रही। सरकारी योजनाओं से बड़ी संख्‍या में बिरहोरों के भी पक्‍के घर बन गये हैं। इसके बावजूद परंपरा अभी भी देखने को मिलती है। हजारीबाग के ही डेमोटांड़ और टाटीझरिया में पक्‍के मकान में छेद कर बच्‍चों को निकालाने के मामले दिखे हैं।

विभिन्‍न राज्‍यों में जनजातियों के बीच काम कर चुके एंथ्रोपोलॉजी अफसर इंचार्ज से अवकाश ग्रहण करने सुधांशु शेखर मिश्र कहते हैं बिरहोर नाम से ही जाहिर है बीर यानी जंगल और होर यानी आदमी, जंगल का आदमी। कई दशक पहले ये घने जंगलों में ही रहते थे। अपनी परंपरा के हिसाब से मां और बच्‍चे को प्रदूषण और बुरी आत्‍माओं से बचाने के लिए जन्‍म के समय घर से अलग एक बंद कमरा-झोंपड़ी में रखते हैं। हालांकि समय के साथ इनमें भी बदलाव आ रहा है।

बच्‍चों की शिक्षा के लिए बिरहोर भाषा में तीन किताबों के अनुवाद में सहयोग करने वाले गुमला जिला के बिशुनपुर के आठवीं पास सिमोन बिरहोर बताते हैं कि बच्‍चे का जन्‍म होने से पहले प्रसूता को कमरे के अंदर भेज देते हैं। अछूत मानते हैं। घर के लोग भी सामने नहीं आते। दूर से ही खान-पीना देते हैं। पत्‍तों और लत्‍तर से ढका, झोंपड़ीनुमा कमरा होता है। इसें घुटनों के बल या रेंग कर प्रवेश कर सकते हैं। आठ दस दिनों तक इसमें रहते हैं। इसे टांडा-कुरहा कहते हैं। घर में ही प्रसव कराते हैं। हालांकि समय के साथ बदलाव आया है। लोग अस्‍पताल जाने लगे हैं। सरकारी योजना के तहत बिरसा आवास भी मिला है। उसमें भी प्रसूता को अलग कमरा दे दिया जाता है। सिमोन कहते हैं कि कोई छह दशक पहले तक बिरहोरों का निवास जंगल के भीतर ही होता था। पेड़ की खाल और लत्‍तर से रस्‍सी बनाना इनका पेशा है। अब प्‍लास्टिक के बोरे खरीद उसके रेशों से रस्‍सी बनाते हैं। मगर आमदनी बहुत कम हो पाती है। यही कारण है कि पढ़ने से वंचित हो जाते हैं। स्‍नातक बिरहोर ढूंढेंगे तो एक हाथ की उंगलियों पर ही सिमट कर रह जायेंगे।

घटती आबादी की चिंता

छोटानागपुर के पठार की 8 आदिम जनजातियों में एक है बिरहोर। चतरा, हजारीबाग, रामगढ़, रांची, बोकारो, गिरिडीह, कोडरमा में ज्‍यादा हैं। ये दो तरह के हैं घुमंतू और स्‍थायी। घुमंतू होने के कारण जीवन यापन का स्‍थायी उपाय नहीं होता। किसी तरह जीवन बसर करते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में सिर्फ दस हजार के करीब बिरहोर रह गये हैं। सरकार इनकी घटती आबादी को लेकर चिंतित है। इसके कारणो की पड़ताल और बचाव के उपाय के लिए ट्राइबल रिसर्च इंस्‍टीट्यूट के साथ मिलकर रिम्‍स ( राजेंद्र आयुर्विज्ञान संस्‍थान, रांची) बिरहोर जनजाति पर काम कर रहा है। पोषण, जीन, फर्टिलिटी, रहन सहन, हीमोग्‍लोबिन की स्थिति का परीक्षण कर पता लगाने में जुटे हैं कि इनकी संख्‍या क्‍यों नहीं बढ़ रही है।

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